रत्नेश कुमार
लालकृष्ण आडवाणी आपातकाल के सुपरिचित नेता हैं आपातकाल में विपक्षी विचारधारा को बोलने की मनाही थी. लालकृष्ण आडवाणी कैसे बोलते? बोलने वाले जेल से भी बोलते थे. लेकिन उनकी आवाज मीडिया में नहीं आती थी. मीडिया में वही आवाज आती थी जो सरकार चाहती थी कि आए.
जहां तक मुझ जैसे आम आदमी को मालूम है आज देश में आपातकाल नहीं है. इंदिरा गांधी परिवार भी सत्ता व्यवस्था में नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी चाहे तो बोल सकते हैं उन्हें बोलने से रोका नहीं जा सकता. भारत का संविधान आपातकाल की तरह स्थगित नहीं है. लागू है, आडवाणी से किसी को यह उम्मीद नहीं कि वह सत्ता व्यवस्था के विरुद्ध मुंह खोलेंगे लेकिन वह बोल तो सकते ही हैं. ऐसा नहीं कि उनके बोलने या मुंह खोलने से किसी का कुछ बिगड़ जाएगा, सिवाय उनके. उनका जो बिगड़ना था सो बिगड़ चुका है.
91 वर्षीय आडवाणी का राजनीतिक देहावसान 2014 में हो गया था. यह और बात है कि उन्होंने अपने राजनीतिक देहावसान को गंभीरता से नहीं लिया. वे सत्ता के समय की ओर टकटकी लगाए रहे. उन्हें लगता रहा कि उनके राजनीतिक जीवन का सूर्यास्त नहीं हुआ है. उनके राजनीतिक शिष्य उनका पुनः जयगान करेंगे. उन्हें प्रधानमंत्री नहीं, राष्ट्रपति तो बनाया ही जा सकता है. वे बनाए जाएंगे.
इतने अनुभवी होने के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी को यह तक समझ में नहीं आया कि सत्ता राष्ट्रपति उसे बनाती है जो सत्ता का विश्वस्त हो उनसे कोई यह सवाल कर सकता है कि आपको यह कैसे उम्मीद रही कि आपको राष्ट्रपति बनाया जा सकता है? वैसे वे शायद ही यह स्वीकारें कि उन्हें राष्ट्रपति बनाए जाने की उम्मीद थी. राजनीति में सच बोलने का समय चला गया और सच स्वीकारने का भी. जब लालकृष्ण आडवाणी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए उछाला जा रहा था तो उन्होंने खंडन नहीं किया. उन्होंने मौन की राजनीति में अपनी राजनीतिक भलाई समझी. हर राजनेता अपनी भलाई आप समझता है उसकी भलाई या भलाई का ख्याल दूसरा नेता नहीं रखता.
लालकृष्ण आडवाणी जैसा राजनीतिक नेता भी जीते जी मर सकता है यह देखकर राजनीति का वर्तमान और भविष्य समझ में आता है. 2014 में तय हो गया था कि लालकृष्ण आडवाणी अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम पारी खेल रहे थे. क्रिकेट की भाषा में कहें तो पता नहीं उनके जैसे मंजे राजनीतिक खिलाड़ी ने यह राजनीतिक खेल कैसे नहीं समझा!
यदि समझा तो यह कैसे चुपचाप स्वीकार कर लिया कि टीम में रहेंगे लेकिन मैदान में नहीं उतरेंगे बल्लेबाजी गेंदबाजी और नहीं करेंगे लालकृष्ण आडवाणी जैसा राजनीति खिलाड़ी टीम में हो और खेल खिलाए नहीं बल्ला गेंद नहीं हाथ में ले तो टीम में क्यों रहे क्यों नहीं अवकाश ग्रहण कर रहे यशवंत सिन्हा जैसे धुरंधर राजनीतिक नेता ने समझा कि उनके दिन गए और उन्होंने अपनी समझदारी दिखलाई.
लालकृष्ण आडवाणी से भी सजग लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे भी अपनी समझदारी दिखलाएंगे. उनकी समझदारी पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि उन्होंने कैसे यह उम्मीद रखी थी कि उन्हें 2019 में भी गांधीनगर से टिकट मिल जाएगा. उनका टिकट कटा तो राजनीति के शिशुओं को भी अचरज नहीं हुआ. वैसे बहुत लोगों को यह कहते हुए सुना गया कि या तो होना ही था.
उनकी राजनीतिक पार्टी और उनकी पार्टी से जुड़े संघ संगठनों ने भी कोई गंभीर पर प्रतिक्रिया नहीं दिखलाई जैसे हर किसी को मालूम हो सिवाय लालकृष्ण आडवाणी के. आडवाणी के पुराने राजनीतिक शिष्य शत्रुघ्न सिन्हा ने मुंह खोला तो सुशील मोदी जैसे राज्य स्तरीय नेता ने उलट कर शत्रुघ्न सिन्हा पर ही हमला कर दिया.
लालकृष्ण आडवाणी के पक्ष में बोलना पाकिस्तान के पक्ष में बोलना नहीं है, लेकिन लग यही रहा है. आडवाणी पाकिस्तान के थे, हैं नहीं. उन्होंने वहां से मैट्रिक पास किया था. वे हिंदुस्तान के एक राष्ट्रवादी नेता हैं. उनके पक्ष में बोलना पाकिस्तान के पक्ष में बोलना कैसे हैं! बहरहाल उनका राजनीतिक देहावसान हो चुका है, यह सच है.



