जावेद अनीस
>गोरखपुर में करीब साठ बच्चों की मौत ने देश के हर संवेदनशील नागरिक को झकझोर दिया या कोई आतंकी नहीं बल्कि एक अस्पताल में घटना घटी थी जिसका काम लोगों की जान लेना नहीं बल्कि जिंदगी देना है. यह घटना कब घटी जब देश आजादी की 71वीं सालगिरह मनाने की तैयारी कर रहा था. इसे शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है की मुख्यमंत्री के गृहनगर गोरखपुर में बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज मैं बीमार बच्चों कि आप सीजन सप्लाई रोक देने की वजह से मौत हो गई.
दरअसल ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी ने भुगतान न होने की वजह से सप्लाई रोक दिया था. जाहिर है कंपनी के लिए बच्चों की जान की कोई कीमत ही नहीं थी. उसके लिए पहला और अंतिम सच पैसा ही था. सत्ताधारी नेताओं द्वारा इस घटना की जवाबदेही करने के बजाए इसे बहुत ही घृणित तरीके से सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई. उनकी तरफ से बयान आया की 'पहली बार ऐसा हादसा नहीं हुआ है' और 'अगस्त में बच्चे मरते ही हैं'. यह घटना सहेत सेवाओं के निजीकरण की वकालत करने वालों के लिए भी एक सवाल छोड़ते हुए एक बार फिर चेताती है कि सेहत जैसी जीवन से जुड़ी सेवाओं को मुनाफाखोर कंपनियों के हवाले करने के कितने गंभीर खामियाजा भुगतने पड़ सकते हैं.
गोरखपुर की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है इस से पहले भी देश में अनेक क्षेत्रों में इसी तरह की घटनाएं होती रही हैं. पूर्व में हुई घटनाओं से हम सीख हासील नही कर सकते थे. लेकिन हमने कभी ऐसा नहीं किया हमने तो जवाबदेही एक दूसरे पर थोपने और हर नए मामले को किसी हिसाब से रफा-दफा करने का काम किया है. पूरी व्यवस्था संवेदनहीनता और निगमन का शिकार है.
मध्य प्रदेश की पिछले कई दशकों से बच्चों के लिए कब्रगाह बना हुआ है एक तरफ तो बीच-बीच में गोरखपुर की तरह होने वाली घटनाएं हैं