तैयब हुसैन-संघर्ष चेतना का मुखर सहयात्री
ऑक्सफोर्ड और कैलिफोर्निया से भी पहले अवस्थित प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का दुनिया में इतना नाम था। कि पूरी दुनिया से छात्र शिक्षक इसमें पढ़ना पढ़ाना चाहते थे कहा जाता है कि जो विद्यार्थी नामांकन की इच्छा से यहां आता था उसका पहला इंतिहान यहां का द्वारपाल लेता था तभी परीक्षार्थी की योग्यता विशेष से संबंधित विषयों के आचार्य के पास भेजाता था। लेकिन भारत के एकांगी और छिछली समझ के रहनुमाओं ने शिक्षा की ऐसी उलटी गंगा बहा दी है कि विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और पीएचडी की उपाधिधारी लड़के द्वारपाल बनने के लिए आवेदकों की कतार में खड़े हो रहे हैं भारत की बची खुची खूबियों वाली ऊंची शिक्षा के संस्थानों को ग्रत में धकेलने की हर मुमकिन कोशिश जारी है।
भारत के मां बाप अपने बच्चों को यथा हैसियत बेहतरीन तालीम देना चाहते है वे कुल मिलाकर हर साल 50 अरब डालर खर्च करते हैं ताकि गिने चुने शिक्षा संस्थानों में उनका नामांकन हो सके कम आमदनी वाले अभिभावक अपनी संपत्ति गिरवी रख रहे हैं उधर आईआईटी के लिए निजी कोचिंग देने वाले प्रमुख संस्थानों में पिछले 30 साल में 300 गुना की बढ़ोतरी हो चुकी है। आईआईटी की तैयारी के लिए कुछ संस्थानों में 4 साल तक तोता रटंत प्रणाली से बच्चों की पिसाई जारी है। कोटा जैसे शहरो में बने कोचिंग कारखाने इतनी दबाओ अंदेशो से घिरे हैं कि इनमे आए दिन छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं देखी जा रहे हैं। पढ़ाई के इस दबाव का दूसरा स्वरूप है भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी मध्य प्रदेश का व्यापम बिहार का पेपर लीक मामला और हालिया नीट की परीक्षा में गड़बड़ी इसकी उदाहरण है।
इतना होने पर भी भारत में 75 से 90 फीसद स्नातक ऐसे हैं जो रोजगार के नाकाबिल हैं। 'दी नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेस कंपनीज' की रपट पर्सपेक्टिव 2020: ट्रांसफार्म बिजनेस ट्रांसफार्म इंडिया में कहा गया है कि शिक्षित नौजवानों में से सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत का रोजगार देने लायक होना और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में सिर्फ 25 फीसद स्नातको का लायक होना व्यवसायिक क्षेत्र में बहुत बड़ी बाधा है।
ऐसे में छात्र एक से ज्यादा डिग्री के लिए कोशिश में खुद का वक्त बर्बाद कर रहे हैं और मां-बाप के खर्च बड़ा रहे हैं। इसके विपरीत जेएनयू जैसे प्रगतिशील सोच के छात्र शिक्षक जब शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की समाज विरोधी और अधोगामी मंशा पर सवाल उठाते हैं तो उन्हें देशद्रोह, राष्ट्रवाद और भारत माता की जय जैसे भावनात्मक प्रचार से अनसुना करने की कोशिश होती है। ऐसे विश्वविद्यालयों और आलोचनात्मक विचारों पर विराम लगाया जाता है।
दूर क्यों जाए बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय की खोई प्राचीन प्रतिष्ठा के पुनर्उद्धार के प्रयास में ही हस्तक्षेप शुरू है। एक विदेशी विद्वान कुलपति को अपना अपमान समझकर पद से त्यागपत्र देना इसी कड़ी का घिनौना प्रकरण था।
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना अशोक के समकालीन बौद्ध विद्वान सारी पुत्र मौदगलायन ने सबसे पहले एक विद्यालय को रूप में की थी। बाद में कितने ही राजाओं का दौरा आया पर किसी ने भी उसकी अपनी व्यवस्था मे कोई खलल नहीं डाली, उसका खर्च जनता उठाती है।
भारत के मां बाप अपने बच्चों को यथा हैसियत बेहतरीन तालीम देना चाहते है वे कुल मिलाकर हर साल 50 अरब डालर खर्च करते हैं ताकि गिने चुने शिक्षा संस्थानों में उनका नामांकन हो सके कम आमदनी वाले अभिभावक अपनी संपत्ति गिरवी रख रहे हैं उधर आईआईटी के लिए निजी कोचिंग देने वाले प्रमुख संस्थानों में पिछले 30 साल में 300 गुना की बढ़ोतरी हो चुकी है। आईआईटी की तैयारी के लिए कुछ संस्थानों में 4 साल तक तोता रटंत प्रणाली से बच्चों की पिसाई जारी है। कोटा जैसे शहरो में बने कोचिंग कारखाने इतनी दबाओ अंदेशो से घिरे हैं कि इनमे आए दिन छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं देखी जा रहे हैं। पढ़ाई के इस दबाव का दूसरा स्वरूप है भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी मध्य प्रदेश का व्यापम बिहार का पेपर लीक मामला और हालिया नीट की परीक्षा में गड़बड़ी इसकी उदाहरण है।
इतना होने पर भी भारत में 75 से 90 फीसद स्नातक ऐसे हैं जो रोजगार के नाकाबिल हैं। 'दी नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेस कंपनीज' की रपट पर्सपेक्टिव 2020: ट्रांसफार्म बिजनेस ट्रांसफार्म इंडिया में कहा गया है कि शिक्षित नौजवानों में से सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत का रोजगार देने लायक होना और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में सिर्फ 25 फीसद स्नातको का लायक होना व्यवसायिक क्षेत्र में बहुत बड़ी बाधा है।
ऐसे में छात्र एक से ज्यादा डिग्री के लिए कोशिश में खुद का वक्त बर्बाद कर रहे हैं और मां-बाप के खर्च बड़ा रहे हैं। इसके विपरीत जेएनयू जैसे प्रगतिशील सोच के छात्र शिक्षक जब शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की समाज विरोधी और अधोगामी मंशा पर सवाल उठाते हैं तो उन्हें देशद्रोह, राष्ट्रवाद और भारत माता की जय जैसे भावनात्मक प्रचार से अनसुना करने की कोशिश होती है। ऐसे विश्वविद्यालयों और आलोचनात्मक विचारों पर विराम लगाया जाता है।
दूर क्यों जाए बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय की खोई प्राचीन प्रतिष्ठा के पुनर्उद्धार के प्रयास में ही हस्तक्षेप शुरू है। एक विदेशी विद्वान कुलपति को अपना अपमान समझकर पद से त्यागपत्र देना इसी कड़ी का घिनौना प्रकरण था।
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना अशोक के समकालीन बौद्ध विद्वान सारी पुत्र मौदगलायन ने सबसे पहले एक विद्यालय को रूप में की थी। बाद में कितने ही राजाओं का दौरा आया पर किसी ने भी उसकी अपनी व्यवस्था मे कोई खलल नहीं डाली, उसका खर्च जनता उठाती है।