मोहम्मद आरिफ
पूर्वांचल खबर
पूर्वांचल खबर
कोरेगांव भीमा में 1 जनवरी 1818 को पेशवा बाजीराव पर ब्रिटिश सैनिकों की जीत की 201वीं सालगिरह पर जानिए कैसे 200 महारो ने 28 हजार की पेशवा की सेना को हरा दिया था.
क्या हुआ था 1 जनवरी 1888 को
सबसे पहले तो हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि भीमा कोरेगांव में दलित पेशवा के खिलाफ ईस्ट इंडिया कंपनी की पलटन का अंग बनकर क्यों लड़े थे?
इसी से जुड़ा एक सुविधाजनक प्रश्न यह भी है कि आखिर क्यों आधुनिक अर्थों में भारत में दलित विमर्श के जनक जयोतिबा फूले ने 1857 विद्रोह के विफल हो जाने के बाद पुणे में उन महार सैनिकों का सर्वाजनिक अभिनंदन किया, जिन्होंने अंग्रेज शासकों का साथ दिया था और ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत में निर्णायक भूमिका निभाई थी.
यही नहीं उन्होंने वायसराय को एक पत्र लिखकर इस बात पर खुशी जाहिर की थी कि अंग्रेज जीत गए और भारत के दलितों को फिर से स्वर्णों का गुलाम नहीं बनना पड़ेगा. 1857 का दलित विमर्श अंबेडकर से पूरा होता है. उन्होंने भी अपने लेखन और भाषणों में अंग्रेज शासकों के प्रति अपनी प्रशंसा का भाव छिपाया नहीं था.
दलित व्यथा समझने के लिए हमें वायसराय को संबोधित फुले के पत्र को गौर से पढ़ना होगा. इस में व्यक्त फूले की चिंता पूरे दलित समाज की चिंता है. ईस्ट इंडिया कंपनी जीत गई मतलब दलित एक बार फिर स्वर्णों के गुलाम बनने से बच गए.यदि कंपनी हार जाती तो क्या सरकारी सैनिक और असैनिक सेवाओं तथा शिक्षा हासिल करने के दरवाजे उनके लिए खुले हुए वापस बंद ना हो जाते?
एक शिक्षा विरोधी समाज में, अपने तीन चौथाई से भी अधिक सदस्यों को जातिए लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित कर रखा था. पहली बार उन शूद्रों, अति शुद्रो तथा स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार मिल रहा था. पहली बार ही वर्ण और कुल नहीं बल्कि काफी हद तक योग्यता के आधार पर सरकार की सैनिक और असैनिक सेवाओं में भर्ती होने जा रही थी. 200 साल पहले भीमा कोरेगांव में हुए युद्ध ने इस नई नीति की सार्थकता भी साबित कर दी.
दलित व्यथा समझने के लिए हमें वायसराय को संबोधित फुले के पत्र को गौर से पढ़ना होगा. इस में व्यक्त फूले की चिंता पूरे दलित समाज की चिंता है. ईस्ट इंडिया कंपनी जीत गई मतलब दलित एक बार फिर स्वर्णों के गुलाम बनने से बच गए.यदि कंपनी हार जाती तो क्या सरकारी सैनिक और असैनिक सेवाओं तथा शिक्षा हासिल करने के दरवाजे उनके लिए खुले हुए वापस बंद ना हो जाते?
एक शिक्षा विरोधी समाज में, अपने तीन चौथाई से भी अधिक सदस्यों को जातिए लिंग के आधार पर शिक्षा से वंचित कर रखा था. पहली बार उन शूद्रों, अति शुद्रो तथा स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार मिल रहा था. पहली बार ही वर्ण और कुल नहीं बल्कि काफी हद तक योग्यता के आधार पर सरकार की सैनिक और असैनिक सेवाओं में भर्ती होने जा रही थी. 200 साल पहले भीमा कोरेगांव में हुए युद्ध ने इस नई नीति की सार्थकता भी साबित कर दी.
सिर्फ कुछेक 100 महारो और एक छोटी सी गोरी टुकड़ी ने 1 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की पलटन के रूप में अपने से कई गुना बढ़ी पेशवा की फौज को पीट डाला और पहली बाहर गौरांग महाप्रभु ने अछूत समझे जाने वालों की युद्ध क्षमताओं को पहचाना था. दरअसल भीमा कोरेगांव में लड़ रहे महारो की बहादुरी के पीछे उनके मन में दबा हुआ गुस्सा था जो पेशवाई द्वारा उनके साथ पशुओं जैसा व्यवहार करने से उपजा था.
उन दिनों पुणे में रास्ते में चलते समय महारो को सावधान रहना पड़ता था कि उनकी छाया भी स्वर्णो पर ना पड़े. वे अपने पीछे झाड़ू बाँध कर चलते थे. जिससे उनके पद चिन्ह मिट जाए और उनके गले में हंडिया लटकी रहती थी. जिससे उनके थूक या लार जमीन पर गिर कर उसे प्रदूषित ना कर सके. ऐसे में हम कल्पना ही कर सकते हैं की क्रूर पेशवाओं के खिलाफ उन्हें शिक्षा और सैन्य सेवाओं में बराबरी का अधिकार देने वाले को गोरों के पक्ष में लड़ते समय उनके मन में कितना उत्साह और गुस्सा भरा रहा होगा.
उन दिनों पुणे में रास्ते में चलते समय महारो को सावधान रहना पड़ता था कि उनकी छाया भी स्वर्णो पर ना पड़े. वे अपने पीछे झाड़ू बाँध कर चलते थे. जिससे उनके पद चिन्ह मिट जाए और उनके गले में हंडिया लटकी रहती थी. जिससे उनके थूक या लार जमीन पर गिर कर उसे प्रदूषित ना कर सके. ऐसे में हम कल्पना ही कर सकते हैं की क्रूर पेशवाओं के खिलाफ उन्हें शिक्षा और सैन्य सेवाओं में बराबरी का अधिकार देने वाले को गोरों के पक्ष में लड़ते समय उनके मन में कितना उत्साह और गुस्सा भरा रहा होगा.