जन स्वास्थ्य लोगों की अाजीविका से जुड़ा मुद्दा है. स्वास्थ सुविधाओं का लगातार निजी हाथों की तरफ खिसकते जाने से उनकी पहले से ही खराब हालत और खराब होती जा रही हैं. इलाज मे होने वाले खर्चों की चलते भारत में हर साल लगभग 4 करोड लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं.इसलिए पिछले दिनों नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को मंजूरी दे दी गई है नीति भले ही नई हो लेकिन ट्रैक वही पुराना है.
भारतीय संविधान अपने नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार देता है. राज्य के निती निर्देशक तत्वों में भी पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊंचा करने और लोक स्वास्थ्य में सुधार करने को लेकर राज्य के कर्तव्य की बात की गई है. लोकिन जमीनी हकीकत ठीक इसके विपरीत है. हमारे देश में स्वास्थ सेवाएं भैयावह रुप से लचर हैं. सरकारों ने लोक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी से लगातार अपने आप को दूर किया है. उदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद तो सरकारें जन स्वास्थ्य के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी हाथों में सौंपने के रास्ते पर चल पड़ी हैं. आज हमारे देश की स्वास्थ सेवाएं काफी खर्चीली और आम आदमी की पहुंच से काफी दूर हो गई है. निजी अस्पतालो को अंतिम विकल्प बना दिया गया है. जहाँ इलाज के नाम पर इतनी उगाही होती है कि आम भारतीय उसका वहन नही कर पाता है.
लचर स्वास्थ व्यवस्था
आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर भारत में स्वास्थ सेवाएं लगातार लचर होती जा रही हैं.विश्व स्वास्थ सूचकांक में शामिल कुल 188 देशों में भारत 143वें स्थान पर खड़ा है. हम स्वास्थ के क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों की सूची में बहुत ऊपर है विश्व स्वास्थ संगठन की सिफारिशों के अनुसार किसी की देश को अपनी सकल घरेलू उत्पादन यानी जीडीपी का कम से कम 5 फीसद स्वास्थ पर खर्च करना चाहिए लेकिन भारत में पिछले कई दशक से यह लगातार एक फीसद के आसपास बना हुआ है.
नतीजा हुआ है कि देश में प्रति दस हजार की आबादी पर सरकारी और निजी मिलाकर कुल डॉक्टर 7 ही हैं. जबकि विश्व स्वास्थ संगठन के मानको के अनुसार हर एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होनी चाहिए. पिछले दिनों केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया था कि देश भर में 14 लाख डाक्टरो की कमी है. विशेषग्य डॉक्टरों के मामले में तो हालात और भी बदतर है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट की अनुसार सर्जरी, स्त्री रोगो, शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी 50 फीसदी है. ग्रामीण इलाको में यह आकडा 82 फीसदी तक पहुच जाता है.
भारत की नीति निर्माताओं ने स्वास्थ सेवाओं को मुनाफापसंदो के हवाले कर दिया है.आज भारत उन अग्रणी मुल्को मे शामिल है जहाँ सार्वजनिक स्वास्थ का तेजी से निजीकरण हो रहा है. आजादी के बाद हमारे देश मे निजी अस्पतालों की संख्या 8 फीसदी से बढकर 93 फीसदी हो गई है. आज देश मे स्वास्थ सेवाओं के कुल निवेश में निजी क्षेत्र 75 फीसद तक पहुच गया है. निजी क्षेत्र का प्रमुख लक्ष्य मुनाफा बटोरना है. इसमे दवा कम्पनियाँ भी शामिल हैं. इनके लालच और दबाव मे डाक्टरो द्वारा महंगी और गैर जरूरी दवाईंया और जांच लिखना बहुत आम हो गया है. निजी अस्पतालों की संवेदनहीनता की कहानियाँ हर रोज सुर्खियां बनती है. इसी तरह की एक कहानी छत्तीसगढ के कोरबा की हैं जहाँ पिछले साल आपोलो अस्पताल के प्रबन्ध ने इलाज के दो लाख रूपया का बिल नहीं दे पाने पर तीरंदाजी की राष्ट्रीय खिलाडी का शव देने से मना कर दिया था.
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